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Monday, June 15, 2009

आना यहीं पड़ा

है क्या यहाँ?
इक चुप में कलोल
पंछी का,
कलरव खुशियों का
या मदमस्त पवन का।
मुझ्कोतो अंत ललिताता
लगे सुहाया अम्बर का।
गम से नाता दिल का है
सो आना यहीं पड़ा।
नाता छोर पर अम्बर के
लगे लाली में मैं भी जादा।
सागर तट पर खड़ा-खड़ा
क्यूं मन भी है इत रुका-रुका
सुख से डर नहीं न गम से
जहाँ सुर जुड़े सरगम से चाहूँ एक जग ऐसा जित
सुख हो न गम।
गम सी प्यार यूँ है के
गम से आगे शून्य है।
कहीं दीखता है यहीं
सो आना यहीं पड़ा.

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