दब गई सिसकी
सिसक सिसक कर,
गर्भ में साँसे
खिसक खिसक कर
देतीं हैं दम तोड़।
गर्भ कब्र बन जाती है;
मुर्दा कब्र बोलती है-
मैं थी ।
आज नहीं; कल
दब गई सिसकी
सिसक सिसक कर।
लीला सृष्टा की तो दृष्टा देख
सिसकी पर सिसकी,
कब्र पर कब्र,
कत्ल पर कत्ल।
उसकी कब्र पर
पट गईं अनगिन कब्र।
मैं थी आज नहीं, कल
दब गई सिसकी
सिसक सिसक कर।
--इरफान
too nice poem. it's the truth of our society.
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