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Monday, June 15, 2009

डूब कर खिला हूँ

डूब कर खिला हूँ
मैं गम के दरिया में।
अधर पर रक्त है उसका
नयनों में है बाउचर।
खुशियाँ छूते ही बरक्स
पा जाता हूँ ताज़ा इतहास।
डूब कर खिला हूँ
मैं गम के दरिया में।
हाथ जोड़ते ही सिजदे की याद आती है।
ईश नाम सुनते हिराब की याद आती है।
देखते ही अनजानों को अपनों की याद आती है।
कब बीत चला वक्त, दो लकीरें बह जाती हैं,
जब कौर टूटते ही कर-सुगंध की याद आती है।
बुरका देख कर क्यूं बस मान की ही तस्वीर छाती है।
स्मृतियाँ सुहानी क्यों मन पर ही इठलाती हैं।
देख चाँद ईद का, खुशियाँ यह कह जाती हैं-
डूब कर खिला तू गम के दरिया में।
खिलकर गम में भी मुस्काना।
दरिया बढे तो हंस जाना। रुके तो कहना-
डूब कर खिला हूँ
मैं गम के दरिया में।

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