बस मैं ही जानता हूँ
दर्द!
चिथडों में गीली हो गई
गर्द!
आंत लिए कोई हाथों में
प्राण पकड़ कोई आँहों में
इक पल को सुन्न धमाका
और फिर...! लाशें!
थमी हवा और; ज़मीन हो गई
ज़र्द!
ख़ुद मेरी है उनसे
अर्ज़!
नया जिहाद है अब
मर्ज़!
कहाँ आत्मरक्षा , बचाव दीन का
अब नफरत, सिर्फ़ नफरत
तुम अपने बचपन से मजबूर
वह अपने।
जो बचपन में दिया
वो जवानी में फूटेगा
बेगुनाहों को देने वाले
दर्द!
ख़ुद को कहलाते हैं
मर्द!
बस मैं ही जानता हूँ
दर्द!
चिथडों में गीली हो गई
गर्द!
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