मैं शब्दों का मारा हूँ
किस्मत का नहीं,
लातों का नहीं।
घायल अन्दिल्हा हूँ,
सरकारी भवन ज्यों।
हाथ टूट कर जुड़ जाता है;
शस्त्र का जख्म भर जाता है;
शब्द का फूल,
ज़रा सा फूल
बनकर शूल
मर्ज़ की धूल
भूल ही भूल
में हवा हो जाता है।
घुलता हूँ भीतर ही भीतर
मुझ अहमक को मकबूल।
अपनों से दूर ,
गगन को घूर,
किता मंज़ूर,
दिल गो चूर।
जग का दस्तूर -
निज गैर हुआ जाता है।
मैं शब्दों का मारा हूँ
किस्मत का नहीं,
लातों का नहीं।
घायल अनदिखा हूँ
सरकारी भवन ज्यों।
-इरफान
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